सोमवार, जून 13, 2011

कृप्या शीर्षक दें

आखिरी पैग खतम होते होते खुदा और ब्रह्मा को काफी नशा हो गया था. चूँकि वो दोनूं कम से कम चार दुनियाओं को सम्भाल रहे थे, इसलिए थोड़े व्यस्त थे. चारों दुनियाओं में विद्रोह हो रहा था.
लेखक विद्रोह कर रहे थे कि लिखने के लिए चारों दुनियाओं में कोई विषय नहीं था, अध्यापकों का विद्रोह था कि पढाने के लिए कुछ नहीं था. इसी तरह व्यापारी भी किसी पांचवीं दुनियां में व्यापर के लिए जाना चाहते थे, जो इनको भी मालूम नहीं थी. तभी इनकी नज़र जंगलों पर पड़ी ..............................
जंगल कटे और चारों दुनियाओं में कुछ नहीं बचा ............... खुदा और ब्रह्मा भी नहीं

गुरुवार, जून 09, 2011

लाइक


आँख बंद करके अनुशरण करना उस मुल्क की फितरत बन चुकी थी . फेसबुक आई तो भी लोगों ने ये तरीका अपनाया कि कोई भी कुछ लिखे लाइक कर दो. किसी ने एक बड़ी दुःख दायक सूचना दी. सदी का सबसे बड़ा चित्रकार नहीं रहा. लोगों ने धडाम से लाइक करना शुरू कर दिया. सूचना देनेवाले ने मुकुल के लिए लिखा की इस दुखद सूचना में लाइक करने लायक क्या है. मुकुल ने उस टिप्पणी को भी लाइक कर दिया. चूँकि अब सूचना देनेवाले को गुस्सा आ गया, लिखा, '' मुकुल ने मेरे कहने के बाद भी नहीं माना सच में ही गधा है."
इस टिप्पणी पर भी उससे लाइक का ब ट ........न

बुधवार, मार्च 30, 2011

जीत


टमाटर : भारत मैच जीत गया और लोग ख़ुशी से झूम रहे है, तुम उदास क्यूँ हो आलू .
आलू : मेरा सब कुछ लुट गया भाई.
टमाटर : क्या हुआ, पाकिस्तानी समर्थक हो क्या ?
आलू : अबे गधे, मेरे घर में टीवी नहीं है, पडौस में मैच देख रहा था और चोर घर साफ़ कर गये.

सोमवार, मार्च 28, 2011

मैच


चेला : गुरूजी, इस बार हिंदुस्तान पाकिस्तान के मैच में कौन जीतेगा ?
गुरूजी : कोई नहीं जीतेगा.
चेला : क्यूँ ?
गुरूजी : क्यूंकि हम इस बार कोई फैसला नहीं देने जा रहे है और हमारे फैसले के बिना कोई जीत हार नहीं सकता.
चेला : आपकी माया अपरम्पार है , आप तो गुरूजी अमरीका जैसे लगते है, ...............

बुधवार, मार्च 23, 2011

कसूरवार


''कितना कसूरवार इंसान हूँ, रोज़ एक नया झूठ बोलता हूँ."
"नहीं यार, तुम से ज्यादा कसूरवार तो वो हैं."
"कौन ?"
"जो पिछले 60 सालों से एक ही झूठ बार बार बोल रहें है."
"क्या झूठ है ?"
" ये कि विकास .............................

सोमवार, मार्च 21, 2011

बेचारा


आँख के अंधे और चश्मे का रिश्ता बड़ा अजीब होता है ! जब मेरे मास्टरजी को चश्मे के बिना चोर का मोर दिखाई देता है तब राजनीति में तो बिना चश्मे के लोकतंत्र को नोटतंत्र समझने वालों से तो मुझे कोई दिक्कत नहीं होती ! मेरे वक्त में चोरों का सरदार पाकसाफ था................बहुत बड़ी कहानी है वो भूल में लघुकथा कह गये थे.

शनिवार, मार्च 19, 2011

गांव का घोड़ा


घोड़ा गांव से पहली बार बाहर निकला था। बस में सवार होते ही उसने पैसों का हिसाब लगाना शुरू कर दिया था जो कि तीन जेबों में अलग-अलग रखे हुये थे। क्योंकि उसने सुन- रखा था कि शहर आदमी को लूट लेता है। करीब 17 साल की उम्र थी, जिसमें इतना ही समझ में आया कि लूट का मतलब पैसे को लूटना होता है। असली नाम कागजो मे ‘उदय’ लिखा हुआ था मगर बचपन से लोग उसे ‘घोड़ा’ नाम से ही जानते थे। मां-बाप से झगड़कर वह गांव से शहर रवाना हुआ। दिल मे सारे जहां जीतने की तमन्ना थी। जब बस रुकी तो उसे मालूम नहीं था कि कौन सी जगह आ गयी है मगर चारों ओर की चकाचौंध देखकर लगा कि शायद शहर आ गया है, यही सोचकर बस से उतर गया एक अजनबी दुनियां में जहां के लोग, वातावरण, मिनारें सब अजीब दिख रहे थे।
एक होटल के सामने जाकर रुका। ‘अबे हट यहां से, गधे कहीं के’, चष्मे वाले आदमी के हाथ मे काला बैग था।
गधे! सुनते ही उसे अजीब लगा क्योंकि गांव में तो लोग उसे घोड़ा कहते थे और वह खुद को घोड़े जितना ताकतवर मानता भी था। तुरन्त वहां से दौड़ा और एक होटल के सामने जाकर रुका। मिठाईयों की खुश्बू से दिल मचल रहा था। मिठाईयों के काउंटर के पास टकटकी लगाकर देख रहा था कि मालिक ने फटकार लगाई ‘ऐ! कुते की तरह क्या घुर रहा है, लेना है तो लो वरना अपना रस्ता नापो।
कुता! नहीं, मैं तो घोड़ा हूँ। एक से नजर अपने टांगों की देखा तो सचमुच घोड़े जैसी नजर आयी, दौड़ने लगा।
सामने चैराहे पर पुलिस वाला खड़ा था देखकर कहा, ‘अबे ओ! बन्दर की तरह क्या दौड़ रहा, देखकर ठीक से नहीं चला जाता।’ बंदर! नहीं, मैं तो घोड़ा हूँ। अपने हाथों कि तरफ देखा तो घोड़े की टांग नजर आये।
फिर दौड़ना शुरू कर दिया कि अचानक सामने कार आ गयी, कार वाले ने ब्रके लबाकर बोला, ‘ऐ! मच्छर की औलाद मरना है तो लेट जा।’ मच्छर! नहीं, मैं तो घोड़ा हूँ।
अब उसे पूरा यकीन हो गया था कि उसकी सही पहचान गांव वाले ही करते है। हिनहिनाकर दौड़ता हुआ गांव का रास्ता पकड़ लिया।

शनि की दशा



मुकुल स्टेशन से बाहर निकलकर रिक्शा लेने की सोच रहा था कि अचानक पीछे से एक ज्योतिषी ने हाथ पकड़ लिया। मुकुल दिल्ली पहली बार आया था, इसलिए पहले से ही डर रहा था कि पता नहीं वहां कैसे लोग हो। जब तक खुद को सम्भाल पाता, ज्योतिषी बोला, ‘बेटा ! तेरे पर तो शनि की दशा है, जीवन में कभी सफल नहीं हो पायेगा।’
मुकुल का भविष्य दृष्ठओं में कोई विश्वास नहीं था, वो हर सफलता के पीछे मेहनत को महत्वपूर्ण मानता था। इसीलिय गांव का पहला छात्र है जो इंजनीयरिंग करने दिल्ली आया है। मगर ज्योतिषी से पीछा छुड़ाने के लिये बोला, ‘बाबा, शनि की दशा उतारने का कोई तरिका भी है क्या ?’
बाबा तो सुबह से लेकर शाम तक इसी फिराक में रहतें हैं कि कोई आये जिसकी शनि की दशा उतार कर खुद के भविष्य के लिये भोजन की व्यवस्था करें क्योंकि जीवन में मेहनत से नाता जो तोड़ लिया है। इसी फिराक में था, ‘तुम्हारी जेब में 500 रू हैं तो उतार दूंगा।’ मुकुल वैसे इन बाबाओं के चरित्र से वाकिफ था कि ये चाहे दिल्ली की सड़क पर खड़े हो या फिर रामगढ़ की सड.क पर, उनका मानसिक स्तर एक ही होता है।
‘नहीं’ उसने सपाट सा जवाब दे दिया।
‘कोई बात नहीं बेटा, हम शनि महाराज को राजी कर लेंगे, 100 रू दे दो’ बाबा वार खाली नहीं जाने देना चाहता था।
‘नहीं है बाबा मेरे पास’ मुकुल बाबा की असली मंशा समझ गया था।
‘50 रू तो होंगे, वो दे दो’, अब बाबा अपनी औकात में आ गया था।
‘ नहीं है बाबा। मैं गांव से आया हूं, घरवालों ने सिर्फ किराया दिया जो रास्ते में लग गया’, मुकुल को अब आत्मविश्वास हो गया था।
बाबा एक आदमी के पास इतना समय बर्बाद नहीं करना चाहता था बोला, ‘कितने पैसे हैं तुम्हारे पास ?’
‘ 5 रू हैं बाबा’, मुकुल को मन ही मन में हंसी आ रही थी।
ज्योतिषी ने झटके से मुकुल का हाथ छोड़कर कहा, ‘जा बेटा ! तेरा शनि भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता।’

रविवार, फ़रवरी 20, 2011

थू


(इस कहानी का शिर्षक मंटो की ‘बू’ कहानी को आधार बनाकर दिया गया है)
टुकडों में बंटा हुआ इंसान कभी-कभी उन टुकडों को जोड़कर पूरा इंसान बनने की कोशिश करता है, लेकिन उन टुकड़ों के बीच की खाई इतनी गहरी है कि वह लड़खड़ाकर गिर जाता है और फिर एक नया टुकड़ा पैदा हो जाता है।
धीरे-धीरे दुनियां में इतने टुकड़े हो जाते हैं कि अगर आप सड़क पर खड़े होकर देखें तो इंसान की टांग अलग, सर अलग और धड़ अलग नजर आयेगा। कोई दिल पर हाथ रखकर दावा नहीं कर सकता कि सुबह घर से जो पुरूष निकला है वो शाम को पुरूष के रूप में ही घर वापस आयें। बहुत मुमकिन है कि वो घर आये ही नहीं और गर आ भी जाये तो कम से कम हिजड़ा होकर जरूर आयेगा। शाम को वापस घर तक ईमान को सही सलामत पहुँचाना दुनियां का सबसे कठिन काम है।
खै़र, मैं बात कर रहा था- नानक चन्द की। अब नानकचन्द के बारे में आपको क्या बताऊं, उम्र तो ठीक से उसके माँ - बाप भी नहीं बता सकते क्योंकि वो जब से पैदा हुआ है तब से उल्टे - सीधे काम ही करता आ रहा है। इसीलिए उसके माँ - बाप को लगता है कि सदियों से नानकचन्द नाम का झंझट उनके गले में पड़ा हुआ है। अलबता एक बात जरूरी हैं, जो नानकचन्द को बाकि लोगों से अलग करती थी। वो थी- उसकी आंखें! जो बहुत बड़ी थी। दिमाग पर कोई धुन सवार हो जाती तो दिल के घोड़े पर चढ़कर दिन भर गांव के चारों ओर तीन चक्कर लगा देता। ऐसा लगता था कि उसके गोरे से मुँह पर विराजित काली आंखें हमेशा कुछ न कुछ तलाश कर रही है। किसी से भी बात करता तो सामने वाले को साफ अहसास होता कि नानक चन्द की आँखें उसका दिल चीर कर दो टुकड़े कर देंगी। चूंनाचे लोगों ने उससे आंख मिलाकर बात करना बंद कर दिया।
बस, यही से उसकी रंगीलागीरी में बैचेनी की मिलावट हो गई। नानकचन्द चाहता था कि लोग उससे आंखें मिलाकर बात करें, हालाँकि वो ब्राहमण था फिर भी आँखों के मामले में जाति का दखल नहीं करता। वास्तव में वो आंखें ही डरावनी थी, अब आप पूछेंगे कि कैसी आंखें थी ?
ऊं.............हां, मानों किसी गोरी सी मटकी पर फेवीकाल लगाकर दो मेंडक चिपका दिये हो। देखने में हट्टा-कट्टा नौजवान था, फिर भी शादी नहीं हुई। क्योंकि जो भी नानक चन्द को देखने के लिए आते वो उनकी आंखें देखते ही लड़की देना तो दूर की बात, कोई बहाना बनाकर बिना चाय पानी ही वापस चला जाता। बाकि घर परिवार में किसी तरह की कोई कमी नहीं थी। ब्राह्मण का घर था, मांग कर खाने को सारी दुनियां पड़ी थी और खोने को कुछ था नहीं। परिवार में कुल तीन ही पेट थे- एक रूकमणी माँ दुसरा सांवरमल बाप और तीसरा खुद नानकचन्द। चारों ओर के गांवों में सांवरमल को पक्का ब्राह्मण समझा जाता था क्योंकि उसकी पूरी दिनचर्या में कहीं कोई अब्राहमानिक तत्व नहीं था।
नानकचन्द भी बाप के नक्शे कदम पर चलने की पूरी कोशिश कर रहा था मगर कहीं रूकावट थी तो - आंखें। गमकू काका कहते थे कि शादी तो उन्होंने भी नहीं की मगर नानकचन्द जैसा लंगोट का धनी 20-20 कोस के एरिया में भी नहीं मिलेगा। बहुत हद तक गमकू काका की बात भी सही थी वरना कौन जवानी के उफान को छोड़कर पूजा-पाठ के चक्कर में पड़ता। नानक चन्द दिन भर पूजा-पाठ करने में ही लगा रहता क्योंकि बाकि गाँव के लोग तो उसकी आंखें से डरते थे।
सिर्फ तीन ही चीज थी जिन्हे नानक चन्द की आंखों का डर नहीं था। एक तो उसही माँ, दूसरा बाप और तीसरी भगवान ही पत्थर की मूर्ति, जिसकी आंखें भी नानकचन्द ने काजल से अपनी आंखों से बड़ी बना रखी थी।
घर के बाहर मुख्य सड़क की तरफ एक बैठक थी और वहीं नानक चन्द का पूजा स्थली भी। सुबह नहाकर वो पूजा में बैठता तो दिन भर संस्कृत के श्लोकों का वाचन इतने जोर से करता कि रास्ते जाते हुए व्यक्ति को आराम से सुन सके। वैसे तो सारे गांव के लोग उसके श्लोक सुन चुके थे और किसी को कोई दिक्कत भी नहीं थी क्योंकि संस्कृत तो दूर गांव के लोग ‘ शिश्न’ और ‘योनी’ जैसे हिन्दी के शब्द भी नहीं समझ पाते थे जो नानक चन्द बिना मतलब ही अपने श्लोकों में घूसेड़ देता था।
यहीं से महेश के मन कुलबुलाहट होने लगी कि इन शब्दों का भक्ति में क्या काम? क्योंकि वह दोनों को बखुबी समझता भी था और जानता भी था। महेश काफी मश्कत करके इस नतीजे पर पहुचा कि ये तो प्रकृति के मूल तत्व है इसलिए पूजा में आ भी सकते है। फिर भी महेश की नज़र में नानक चन्द एक रहस्य ही बना हुआ था जबकि सारा गांव उसे भक्त और लंगोटी आदमी मानता था। कोई डरता था तो आंखें से ही।
‘जमाना अपनी रफ्तार से बदल रहा है मगर देखा जाए तो जमाने में बदल क्या रहा है? सब बाहरी दिखावा ही बदल रहा है बाकि आंतरिक मूल्य तो आज भी वहीं पुराने ढर्रे पर है। विज्ञान ने उपकरण दिये, जिन्हें आज आम आदमी इस्तेमाल करता है लेकिन इस्तेमाल करने वालों के दिमाग तो अभी भी पुरानी मानिसकता में जकड़ा हुआ है’’ इसी तरह विचारों में डूबे हुए महेश को अचानक नानक चन्द याद आता है। न जाने वो दिन में कितनी बार महेश के विचारों में ब्रेक का काम करता है और इसी कारण महेश की दिलचस्पी नानक चन्द में बढ गई।
आज एक चौथी चीज हो गई जिसे नानक चन्द की आंखों से डर नहीं लगा। उसे खुद भी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर यह कैसे हो सकता है? शाम के वक्त जब वो पूजा करके खेत में टहलने गया तो टहलते-टहलते खेत की मेड़ पर चढ़ा कि बस । उस तरफ के खेत में एक औरत घास काट रही थी, उसने लगातार नानक चन्द की आंखों में आंख डालकर देखा। एक बार ही नहीं मेड़ से उत्तर कर भाग खड़ा हुआ। वो बूरी तरह हिल चुका था, मन कर रहा था कि दोनों आँखों को फोड़ ले।
"यह कैसे हो सकता है?"
रात भर उसे नींद नहीं आयी, जब भी आंख भीचकर सोने की कोशिश करता तो वो औरत दुसिया लेकर आती हुई प्रतीत होती और उसकी आंखे निकालने की कोशिश करती। नानक चन्द बूरी तरह डर जाता और चारपाई पर बैठकर दोनों हाथों से आंखों को सम्भालता कि कहीं निकाल तो नहीं ली। दिन में भी यहीं हाल होता जब पूजा करने बैठता तो पत्थर की मूर्ति के धीरे-धीरे पलकें निकलती दिखती और फिर वहीं भयानक खेत वाली आंखें कि उसे पूजा से उठना पडता। आज तीन दिन हो गए है नानक चन्द की नींद हराम हो गई हैं। जिन आंखों से सारा गाव खौफ खाता था उन्हें आज एक औरत ने चन्द पल निहार क्या दिया कि खुद को छुपाने का ठिकान दुंद रही है। महेश पिछले तीन-चार दिनों से नानक चन्द को पूजा न करते हुए देखकर उस पर विशेष नजर रखने लगा है। सही भी है क्योंकि वरना एक दिन भी नानक चन्द पूजा मिस नहीं करता था। अब तो हाल यह है कि पूजा के कमरे में जाना तो दूर वो दिन भर अपनी आंखों को शीशे में देखकर कुछ सोचता रहता है।
न दिन था और न ही रात यानी आधा सूरज बाहर दिख रहा था कि कोई देख न ले। खेतों से आते हुए बैलों की घुन्घुरों की आवाज और उनके पैरों से जुडने वाली मिट्टी मिलकर एक अजीब तरह का संगीत पैदा कर रही थी। लोग खेतों से घर लौट रहे थे तो आपस में होने वाली बातें भी फसल कटाई से ही संम्बधित किया गया अनाज देश की शान नहीं है,देश की शान तो कामनवेल्थ है।
महेश उल्टा खेत की तरफ जा रहा था। आने के वक्त कोई जाने लगे तो गांव में लोग उससे पुछते है कि कहीं कोई अनहोनी तो नहीं हो गई है। महेश ने किसी को कुछ जवाब नहीं दिया बल्कि जरूरी काम बताकर अपने साथ कर दिया। लड़कों का झुंड का झुंड खेतों की तरफ जाता देखकर पक्षी हैरानी से चीं-चीं करने लगे। अचानक महेश रूक और सब को सख्त हिदायत दी कि बोलना तो दूर पैरों की आवाज भी नहीं निकलनी चाहिए। सेना की गुप्तचर टुकड़ी महेश के नेतृत्व में एवं खेत में घुसी। आहिस्ता-आहिस्ता जब मेड़ के पास पहुचे तो.........................!
‘बाप रे! नानक चन्द ब्राहमण एक जानवर के साथ, थू।‘
सुबह सारा गांव थू-थू कर रहा था और नानक चन्द की बड़ी बड़ी आंखों की जगह दो गडढे नजर आ रहे थे। कहां गई वो आंखें ?
गमकू काका बोले, ‘आदमी लंगोट का तो पक्का था, जरूर गड़बड़ आंखों ने की है।’’