शनिवार, मार्च 19, 2011

गांव का घोड़ा


घोड़ा गांव से पहली बार बाहर निकला था। बस में सवार होते ही उसने पैसों का हिसाब लगाना शुरू कर दिया था जो कि तीन जेबों में अलग-अलग रखे हुये थे। क्योंकि उसने सुन- रखा था कि शहर आदमी को लूट लेता है। करीब 17 साल की उम्र थी, जिसमें इतना ही समझ में आया कि लूट का मतलब पैसे को लूटना होता है। असली नाम कागजो मे ‘उदय’ लिखा हुआ था मगर बचपन से लोग उसे ‘घोड़ा’ नाम से ही जानते थे। मां-बाप से झगड़कर वह गांव से शहर रवाना हुआ। दिल मे सारे जहां जीतने की तमन्ना थी। जब बस रुकी तो उसे मालूम नहीं था कि कौन सी जगह आ गयी है मगर चारों ओर की चकाचौंध देखकर लगा कि शायद शहर आ गया है, यही सोचकर बस से उतर गया एक अजनबी दुनियां में जहां के लोग, वातावरण, मिनारें सब अजीब दिख रहे थे।
एक होटल के सामने जाकर रुका। ‘अबे हट यहां से, गधे कहीं के’, चष्मे वाले आदमी के हाथ मे काला बैग था।
गधे! सुनते ही उसे अजीब लगा क्योंकि गांव में तो लोग उसे घोड़ा कहते थे और वह खुद को घोड़े जितना ताकतवर मानता भी था। तुरन्त वहां से दौड़ा और एक होटल के सामने जाकर रुका। मिठाईयों की खुश्बू से दिल मचल रहा था। मिठाईयों के काउंटर के पास टकटकी लगाकर देख रहा था कि मालिक ने फटकार लगाई ‘ऐ! कुते की तरह क्या घुर रहा है, लेना है तो लो वरना अपना रस्ता नापो।
कुता! नहीं, मैं तो घोड़ा हूँ। एक से नजर अपने टांगों की देखा तो सचमुच घोड़े जैसी नजर आयी, दौड़ने लगा।
सामने चैराहे पर पुलिस वाला खड़ा था देखकर कहा, ‘अबे ओ! बन्दर की तरह क्या दौड़ रहा, देखकर ठीक से नहीं चला जाता।’ बंदर! नहीं, मैं तो घोड़ा हूँ। अपने हाथों कि तरफ देखा तो घोड़े की टांग नजर आये।
फिर दौड़ना शुरू कर दिया कि अचानक सामने कार आ गयी, कार वाले ने ब्रके लबाकर बोला, ‘ऐ! मच्छर की औलाद मरना है तो लेट जा।’ मच्छर! नहीं, मैं तो घोड़ा हूँ।
अब उसे पूरा यकीन हो गया था कि उसकी सही पहचान गांव वाले ही करते है। हिनहिनाकर दौड़ता हुआ गांव का रास्ता पकड़ लिया।

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